Mittwoch, 4. Juni 2014

दस साल पहले (11 September 2011)

एक तस्वीर की तरह दस साल पहले 11 सितंबर का दिन मेरे सामने उभरता है. मैं जर्मन रेडियो डॉएचे वेले के हिंदी विभाग में पत्रकार था. और साथ ही रेडियो में ट्रेड युनियन का उपाध्यक्ष. दोपहर को युनियन कार्यकारिणी की बैठक के बाद जब विभाग में वापस लौटा, तो हिंदी कार्यक्रम के प्रभारी राम यादव मेरी राह देख रहे थे. पता चला कि अभी-अभी न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के एक टावर से एक जेट विमान टकराया है, मामला आतंकवाद का हो सकता है. कोई डेढ़ घंटे बाद प्रसारण था, हमने तय किया कि समाचारों के अलावा हम पहली रिपोर्ट इसी विषय पर देंगे. फिलहाल बाकी कार्यक्रम योजना के मुताबिक होगा.
हमारी बातचीत चल रही थी, सामने टीवी के पर्दे पर जलते टावर की तस्वीर थी, अचानक और एक हवाई जहाज़ तेज़ी से आते हुए दूसरे टावर से टकराया. यादव जी के गले से आवाज़ निकली, ओह्ह्ह्.....चंद लमहों की खामोशी, उसके बाद मैंने कहा, कार्यक्रम पूरा बदलना है, और प्रसारण के बारे में पहले से कुछ भी तय नहीं किया जा सकता है. हमें लाइव स्टूडियो में सबकुछ तय करना पड़ेगा.
खड़े-खड़े हमने संपादकीय बैठक निपटाया. मुझे कार्यक्रम प्रस्तुत करने की ज़िम्मेदांरी दी गई. आतंकवादी हमलों के बारे में काफ़ी सामग्री हमारे पास थी, लेकिन मेरा कहना था कि इस बार कुछ भी काम नहीं आने वाला है, यह आतंकवादी हिंसा का एक नया स्तर है, मापदंड बिल्कुल बदल चुका है. एक तकनीकी समस्या यह भी थी कि 45 मिनट तक सिर्फ़ मेरी आवाज़ में कार्यक्रम बेहद ऊबाऊ होगा. हमने वाशिंगटन में अपने संवाददाता से फोन मिलाने की कोशिश की. पता चला कि फोन सेवा जैम हो चुकी है. विभाग के सारे साथी अमेरिका में पत्रकारों और परिचितों को फोन करने की कोशिश में जुट गए. हमें घटनास्थल से निजी अनुभव की ज़रूरत थी, लेकिन कहीं कोई मिल नहीं रहा था.
मुझे स्टूडियो के लिए तैयारी करनी थी. समाचार एजेंसियों की ओर से लगातार रिपोर्टें आ रही  थीं, उन्हें परखने की शायद ही गुंजाइश थी. मैंने उन्हें इकट्ठा करना शुरू किया. एक साथी समाचार बुलेटिन तैयार कर रहे थे, बाकी सभी फोन करने में व्यस्त थे. मैंने सोचा, फिलहाल शांत रहना है, देखा जाएगा स्टूडियो में क्या किया जा सकता है.
इतने में साथी महेश झा के टेबुल से आवाज़ आई, वॉयस ऑफ़ अमेरिका के साथी सुभाष वोहरा लाईन पर हैं, तुरंत स्टूडियो में पहुंचिए, मैं कनेक्ट करता हूं. दौड़ते हुए तीन कमरे के बाद स्टूडियो में पहुंचा, किसी दूसरे विभाग के साथी काम कर रहे थे, उनको लगभग धकेलकर बाहर किया, महेश ने स्टूडियो में फोन लाईन कनेक्ट किया. सुभाष से बात शुरू हुई. पता चला कि वे रेडियो भवन की सीढ़ी पर हैं, भवन खाली कराया जा रहा है. कोई नई महत्वपूर्ण सूचना वे नहीं दे पाए. लेकिन वहां कैसा माहौल है, इसकी एक जीती-जागती तस्वीर उभरी. लगभग चार मिनट की बातचीत के बाद साथी वोहरा ने क्षमा मांगते हुए कहा कि सुरक्षा कर्मी उन्हें बाहर निकलने के लिए मजबूर कर रहे हैं. हम दोनों की आवाज़ कांप रही थी, जैसे-तैसे बातचीत ख़त्म हुई.
पांच मिनट का समाचार, चार मिनट की बातचीत, 32-33 मिनट का समय मुझे भरना था लगातार आती खबरों से. उनके विश्लेषण की कोशिश करनी थी. दिमाग के अंदर सन्नाटा छाया हुआ था. स्टूडियो के अंदर मैं, बाहर तकनीशियन और विभाग के सारे साथी. क्या मैंने कहा था, बिल्कुल याद नहीं है. बाहर निकला तो विभाग के अध्यक्ष फ्रीडमान्न श्र्लेंडर ने कहा, कार्यक्रम ठीक हो गया. अब अगले दिनों और महीनों में भी यही मेन थीम है. एक फीकी मुस्कान के साथ मैंने कहा – अगले सालों में भी.

मेरा ठौर

पहली बात तो यह है कि जहां मैं ठहरा होता हूं, वहीं से हर चीज़ देखता हूं, वहीं से अपनी बात कहता हूं.

लेकिन क्या मैं किसी एक जगह पर ठहरा होता हूं. मैं ऐसा नहीं मानता.

शुरू के 26 साल बनारस में. बनारस के सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल में, शहर के बंगाली पारिवारिक-सांस्कृतिक माहौल में, कम्युनिस्ट पार्टी के राजनीतिक-सांस्कृतिक माहौल में. स्कूल(सेंट्रल हिंदू स्कूल) में जिस शिक्षक का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा, वह आरएसएस के ज़िला सरसंघचालक थे. लड़कों को अपनी विचारधारा के तहत लाना उनका मिशन था, और उनके विचारों को काटने की कोशिश करना मेरी ज़िद. हमेशा उनसे प्रोत्साहन मिलता था, फिर भी क्लास में सारे लड़के एक तरफ़, और दूसरी ओर मैं अकेला. अल्पसंख्यक होने का अहसास शायद पहली बार तभी मिला था.

बनारसी माहौल में अगर मुझे बंगाली समझा जाता था, तो पहली बार 14 साल की उम्र में कोलकाता पहुंचने पर पता चला कि मैं तो खोट्टा हूं. इसके अलावा मैं रवींद्रनाथ का भक्त था, तो हमउम्र के बंगाली लड़के जीवनानंद पढ़ते थे. कोलकाता जाने का सिलसिला जारी रहा...कुछ एक सालों में मैं भी काफ़्का, सार्त्र, बोदलेयर और रिलके से लैस हो चुका था, लेकिन गैर होने का अहसास बरकरार रहा.

इस बीच बदनामी बढ़ती जा रही थी – लड़का सिर्फ़ पार्टी ही नहीं करता है, कविता भी लिखने लगा है. बांगला में एक पत्रिका निकाली, जो दो अंकों के बाद मर गई. हिंदी में कविताएं छपी, काशीनाथ सिंह को प्रतिभा दिखी, कॉलरदार कुर्ता पहनकर अस्सी जाने लगा, और वहां पहुंचते ही बनारस के सबसे महान कवि एक रुपये का नोट थमाकर कहते थे, जाओ बेटा, चार बीड़ा पान लगाकर ले आओ. मित्रों के बीच उन्होंने कहा था – कसिया को एक बंगाली लौंडा मिल गया है, क-वि है !

घर में सब परेशान थे, आखिर बीए पास करने में कितने साल लगते हैं ? पैसे की किल्लत थी, सो फुटपाथ पर किताब बेचने लगा. ब्रेष्त की कविताओं के अनुवाद के ज़रिये बनारस के बाहर भी थोड़ा बहुत परिचय बढ़ा, संयोग कुछ ऐसा हुआ कि रेडियो की नौकरी लेकर पूर्वी बर्लिन आ गया. उम्र अभी 27 से कम थी.

33 साल से जर्मनी में हूं. शुरू के दस साल पूर्वी जर्मनी के थे. परिवार बना, जर्मन भाषा व संस्कृति से परिचित होने का मौका मिला. नामी गरामी जर्मन लेखकों और संस्कृतिकर्मियों से निकटता हुई. पहले पार्टी के हलकों में उदारवादी के रूप में मुझे शक की नज़र से देखा जाता था, यहां समस्याएं कहीं विकट रूप से सामने आईं. तथाकथित असंतुष्टों से संपर्क बने. काफ़ी मुमकिन था कि नौकरी जा सकती थी. लेकिन जब तक ऐसी नौबत आती, जर्मनी एकीकरण के कगार पर खड़ा था. लाखों की नौकरियां गईं, संयोग से मुझे (पश्चिम) जर्मन रेडियो में ले लिया गया.

एकीकरण से पहले-पहले एक सपना था कि अब मुकम्मल समाजवाद आने वाला है. पूंजी के बुलडोज़र के नीचे यह बेवकूफ़ी जल्द काफ़ूर हो गई. यूरोपीय समाज में फैली उदारता के बीच धीरे-धीरे अपनी चमड़ी के रंग का अहसास पक्का होने लगा. बर्लिन छोड़कर कोलोन आया, एकदिन प्रोग्राम डिरेक्टर ने बड़े प्यार से कहा, यहां भारत के बहुत सारे लोग रहते हैं. घर जैसा महसूस करोगे.

गनीमत है कि „घर जैसा महसूस करने“ की ज़रूरत अभी तक नहीं पड़ी है. भारत के दोस्त हैं, पाकिस्तान के भी – उससे कहीं ज़्यादा तुर्क या ईरानी. और ज़ाहिर है कि जर्मन दोस्त. वे अक्सर पूछते हैं, जर्मन नागरिकता क्यों नहीं लेते हो. अब उनसे क्या बताऊं. मुझे जर्मनी के प्रति अपनी निष्ठा की शपथ लेनी पड़ेगी. भारतीय पासपोर्ट तो ऐसे ही मिल गया था. लिया भी था, क्योंकि विदेश यात्रा करनी थी. सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक संदर्भों से तो जुड़ा हूं, लेकिन पिछले तीन दशकों में राष्ट्रीयता की भावना लगातार घटती गई है.और अगर मेरी भारतीय देशभक्ति ही संदिग्ध है, तो फिर जर्मनी के प्रति निष्ठा कहां से आएगी ?

दो साल पहले एक साक्षात्कार में मुझसे पूछा गया था : आप कहां घर जैसा महसूस करते हैं ? जर्मनी में या भारत में ? मेरा जवाब था : न यहां, न वहां – मेरा एक तीसरा ठौर है. यह तीसरा ठौर बाकी दोनों की मिलावट से नहीं बना है, बल्कि उनके साथ तनाव से. साथ ही - अपने दौर के साथ तनाव से. इसी तनाव के ज़रिये मैं सबके साथ जुड़ा हुआ हूं. अकेला नहीं हूं.

फ़क्कड़ी के दिन

छात्र राजनीति सूंघने का दौर सेंट्रल हिंदू स्कूल में नौंवीं-दसवीं कक्षा में ही शुरू हो चुका था. मां-बाप कम्युनिस्ट थे, सो शुरू से ही तय था कि कम्युनिस्ट बनना है. इस लिहाज से यह कोई विद्रोह नहीं, पारिवारिक परंपरा निबाहना था. वैसे सबसे प्रिय शिक्षक थे भोला बाबु, और मैं उनका प्रिय छात्र. मैं बिना कुछ समझे-बूझे कम्युनिस्ट बनने को आमादा, और वे कट्टर संघी, आरएसएस के ज़िला सरसंघचालक. शायद यहां विद्रोही तेवर की गुंजाइश थी, और उसका जमकर फ़ायदा उठाया.
यह 67-68 का दौर था, बनारस के राजनीतिक माहौल पर कम्युनिस्ट नेता रुस्तम सैटिन छाये हुए थे, और सड़कों पर छात्र राजनीति का असर बढ़ता जा रहा था. अंग्रेज़ी साइनबोर्ड तोड़ने का मुहिम चला, जिसे उस वक्त हिंदी आंदोलन के नाम से सुशोभित किया गया था. हिंदी को कितना फ़ायदा हुआ था पता नहीं, लेकिन ख़ासकर बीएचयू के छात्रों के बीच राजनीतिक चेतना पैदा करने में इस आंदोलन की अहम भूमिका थी – और इस आंदोलन से उत्तर भारत के सबसे तेज़-तर्रार छात्र नेता उभरे थे – देवब्रत(देबु) मजुमदार. छात्र नेता के तौर पर देबुदा की शान की तुलना शायद सिर्फ़ इमरजेंसी और उसके बाद के दौर में जेएनयू के डीपीटी के साथ की जा सकती है. देबुदा अब नहीं रहे, पुलिस की पिटाई से सिर में लगी चोट दशकों बाद जानलेवा साबित हुई.
1965 में बीएचयू में फिर से छात्र संघ का चुनाव हुआ था, मुकाबला बिहार के दो भोजपुरी छात्रनेताओं – आरएसएस के लालमुणि मिश्र और समाजवादी रामवचन पांडेय के बीच थी. पांडेय जी ने मिश्राजी को पटखनी दी (और बाद में बिहार के विधानसभा चुनाव में पांड़ेजी को हराकर मिश्राजी ने बदला लिया) और उसीके साथ बीएचयू में छात्र राजनीति की बिसात पर गोटियां बिठाने का क्रम शुरू हुआ. यहां कह देना ज़रूरी है कि बीएचयू के छात्र समुदाय को अगर देखा जाय, तो तीन वर्गों के छात्र मौजूद थे. बनारस के शहरी मध्यवर्ग के छात्र, सारे भारत से इस राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में आने वाले छात्र, और पूर्वांचल के कस्बों और गांवों से आनेवाले छात्र. पहले दो वर्गों के छात्र शहराती होते थे और उन्हें मकालू कहा जाता था. कस्बों और गांवों से आनेवाले देहाती छात्र बलियाटिक कहलाते थे. मिश्राजी और पांड़ेजी – दोनों बलियाटिक थे. 66 में आरएसएस घनिष्ठ सुरजीत सिंह डंग अध्यक्ष बने, लेकिन उनकी जीत के पीछे एक उभरते हुए छात्रनेता का हाथ था, जो जल्द ही इतिहास बनाने वाला था – देबु मजुमदार. एक और दिलचस्प बात यह थी कि डंग के मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में एक कम्युनिस्ट उम्मीदवार थे – दीपक मलिक, जो वर्षों तक छात्र राजनीति में सक्रिय रहे व बाद में प्रोफ़ेसर बने व आजकल गांधी शिक्षा संस्थान के निदेशक हैं.
उन दिनों विद्यार्थी परिषद आरएसएस से जुड़े छात्रों और अध्यापकों का संयुक्त संगठन था व छात्र संगठन के रूप में उसकी कोई धार नहीं थी. एक छात्र संगठन के रूप में परिषद की रूपरेखा तैयार करने के पीछे सैद्धांतिक नेता के रूप में राम बहादुर राय का विशेष योगदान रहा है. कट्टर संघी व व्यक्तिगत संपर्कों में अत्यंत मृदु स्वभाव के रायसाहब बाद में जनसत्ता के यशस्वी पत्रकार बने.
1967 में कम्युनिस्ट संगठन एआईएसएफ के नरेंद्र सिन्हा को भारी मतों से हराकर मजुमदार अध्यक्ष बने. मज़े की बात यह है कि सिन्हा के समर्थन में आरएसएस के लालमुणि मिश्रा जी-जान से जुट गये थे. ज़ाहिर है कि यहां बिहारी समीकरण काम कर रहा था. सिन्हा बिहार के थे. बहरहाल, मजुमदार के चुनाव में मकालू ग्रुप की राजनीतिक चेतना पहली बार उभरकर सामने आई. बलियाटिक ग्रुप तो ठाकुर-भुमिहार व किसी हद तक यूपी-बिहार के मुद्दों पर काम किये जा रहा था.
पूरे उत्तर भारत में छात्रों के बीच समाजवादी आंदोलन की पकड़ मज़बूत हो चुकी थी. लोहिया के गैरकांग्रेसीवाद का बर्चस्व था. प्रदेश के दूसरे विश्वविद्यालयों में भी समाजवादी युवजन सभा की पकड़ थी. बीएचयू में इस संगठन के नेताओं में शामिल थे मजुमदार के अलावा रामवचन पांडेय, जो हमेशा हर अभियान में साथ रहते थे, लेकिन उन्हें कोई पूछता नहीं था. मार्कंडेय सिंह की संगठन में अच्छी पकड़ थी. युवा कार्यकर्ताओं में आनंद थे, मोहन प्रकाश थे – भुमिहारों की पूरी एक जमात थी. मुझे ठीक-ठीक याद नहीं चंचल कब से पहली पांत में आए.
बहरहाल, 1968 में अप्रत्याशित रूप से राजनीतिक ध्रूवीकरण सामने आया. आरएसएस के उम्मीदवार थे दामोदर सिंह, जिनके पीछे बाहुबलियों की पूरी एक जमात खड़ी थी. समाजवादी युवजन सभा के आधिकारिक उम्मीदवार तो मार्कंडेय सिंह थे, लेकिन मजुमदार पिछले साल के अपने प्रतिद्वंद्वी नरेंद्र सिन्हा का समर्थन कर रहे थे. चुनाव के दौरान ही आरएसएस की ओर से दहशत का ऐसा एक माहौल तैयार किया गया कि उनके विरोध में किसी एक उम्मीदवार को वोट देने का माहौल तैयार किया गया. मैं इसी साल पीयुसी के छात्र के तौर पर विश्वविद्यालय में आया था. कैंपस का राजनीतिक माहौल दंग करने वाला था, और साथ ही दहशत का भी अहसास पूरी तरह से था. अंततः नरेंद्र सिन्हा की अच्छे अंतर से जीत हुई. लेकिन आरएसएस इस जीत को मानने के लिए तैयार नहीं दिख रहा था. कुलपति ने भी आरएसएस का समर्थन करते हुए चुनाव के बाद कहा कि सिन्हा अगर ढाई हज़ार छात्रों के अध्यक्ष हैं, तो दामोदर सिंह भी उन्नीस सौ के अध्यक्ष हैं.
दरअसल, विश्वविद्यालय में आरएसएस, व साथ ही, जातिवाद के निहित स्वार्थों की एक संरचना अपनी पैठ जमा चुकी थी और मजुमदार का एजेंडा उसके ख़िलाफ़ था, कम्युनिस्ट भी इस एजेंडा के साथ थे. मेरा निजी अनुभव भी झकझोरने वाला था, यहां अध्यापक और छात्रों के बीच का रिश्ता नदारद था, दूसरे एजेंडों के तहत रिश्ते बन रहे थे. कुलपति जोशी के बंगले पर एक मामुली प्रदर्शन के बाद मजुमदार, सिन्हा, दीपक मलिक व अन्य कई नेताओं को विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया, पूरे साल तक छात्रों का विरोध चलता रहा, अनिश्चित काल के लिये विश्वविद्यालय बंद कर दिया गया. कैंपस पीएसी और छात्रों के बीच युद्ध का मैदान बना रहा. अंततः गजेंद्रगडकर आयोग की स्थापना हुई. उसकी रिपोर्ट आने के बाद ही शांति स्थापित की जा सकी.
1970 की शांति के पीछे कई प्रक्रियाएं काम कर रही थीं. दूसरे छात्र संगठनों की तर्ज़ पर विद्यार्थी परिषद को नया रूप देने का काम शुरू कर दिया गया था, जिसके चलते आने वाले सालों में आरएसएस की पकड़ मज़बूत होती गई. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के साथ सीपीआई की निकटता बढ़ रही थी, जिसकी पराकाष्ठा इमरजेंसी के प्रति कम्युनिस्टों का समर्थन थी. समाजवादी आंदोलन टूट रहा था, लेकिन एसवाईएस की आत्मा जीवित थी. समाजवादी और आरएसएस – दोनों अब कांग्रेस के विरोध में थे, लेकिन जेपी आंदोलन से पहले तक कैंपस की राजनीति में उनके बीच कोई निकटता नहीं आई. जेपी आंदोलन में भी समाजवादी संगठन युवा जनता और आरएसएस का संगठन जनता युवा मोर्चा समानांतर ढंग से काम करते रहे.
कम्युनिस्टों की हालत पतली थी, क्योंकि उनके पास कद्दावर छात्र नेता नहीं रह गये थे. उनके उम्मीदवार डीपी मिश्रा को हराकर मार्कंडेय सिंह अध्यक्ष बने, आरएसएस के समर्थन से निर्दलीय छात्रनेता संतोष कपुरिया अध्यक्ष बने, बाद में आरएसएस के नज़दीकी एक बाहुबली ने उनकी हत्या कर दी. कम्युनिस्टों ने असंतुष्ट समाजवादियों के समर्थन का रास्ता अपनाया, लेकिन उन्हें इसमें कोई सफलता नहीं मिली. हां, उनके समर्थन से कांग्रेस के हरिकेश बहादुर एक बार ज़रूर जीते.
कैंपस के समाजवादी आंदोलन में धीरे-धीरे वरिष्ठ नेता राजनारायण की भूमिका बढ़ती जा रही थी, और उसी के साथ घट रही थी मजुमदार की पकड़. लेकिन बाद के वर्षों में जिन समाजवादी छात्र नेताओं को सफलता मिली, वे राजनारायण के नज़दीकी चक्र के नहीं थे – मिसाल के तौर पर चंचल या मोहन. जेपी आंदोलन के साथ कम्युनिस्ट और समाजवादी दो विपरीत छोर पर खड़े हो चुके थे. लेकिन यहां मैं कहना चाहूंगा कि कम्युनिस्टों की कैंपस राजनीति आरएसएस के खिलाफ़ लक्षित थी. समाजवादियों का भी यही रुख़ था. इसलिये ये दोनों धारायें अपने आपसे रिश्ते को तय नहीं कर पा रही थी. जेपी आंदोलन शुरू होने के बाद स्थिति बदल गई. अब उनके साथ होने की कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी.
जेपी आंदोलन, कुलपति श्रीमाली का दौर, छात्र नेता के रूप में आनंद कुमार का आगे बढ़ना, चंचल कुमार – मकालू या बलियाटिक ? ये अलग जटिल विषय हैं. फिर कभी इनकी चर्चा होगी. यह भी बताना चाहूंगा कि मेरा व्यक्तिगत अनुभव कैसा था.

भटकते-भटकते

छात्र राजनीति में सक्रिय होने की सबसे बड़ी समस्या यह है कि बाद में राजनीतिक स्पेस ढूंढ़ पाना बेहद मुश्किल हो जाता है. लुभावनी सम्भावनाएं दिखती हैं, लेकिन चार-पांच-छः या इससे भी अधिक सालों के काम आखिरकार कोई मायने नहीं रखता, आपको नये सिरे से शुरुआत करनी पड़ती है. और अगर नेता के रूप में आपका दबदबा रहा हो, तो यह और मुश्किल हो जाता है. इसलिये छात्र नेता बाद में अक्सर अवसरवादी बन जाते हैं, चाहे वे जेएनयु के हों, या लखनऊ, यहां तक कि बनारस का भी यही किस्सा है.
कम्युनिस्टों की बात थोड़ी अलग है. उनका जनाधार अब तो हिंदी क्षेत्र में खत्म हो चुका है, सत्तर के आस-पास तक थोड़ी बहुत थी, और छात्र संगठन और पार्टी के बीच समन्वय कहीं बेहतर हुआ करता था. कुछ अपने पेशों में आगे बढ़ते थे और कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी के रूप में समाज में अपनी प्रतिष्ठा से संतुष्ट रहते थे. पार्टी संगठन के लिये व्यवस्थित रूप से छात्र मोर्चे से कैडर चुने जाते थे. चाहे करात हों या येचुरी – सब इसी प्रक्रिया से आए हैं. सीपीआई में भी यह सिलसिला था.
मेरी हालत थोड़ी अलग थी. मैं छात्र मोर्चे में एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता था, छात्र नेता कतई नहीं. पार्टी तंत्र में समन्वित होने के लिये जिस वैचारिक अनुशासन की ज़रूरत होती है, उसके लक्षण भी मुझमें नहीं दिख रहे थे. दोस्तों के बीच, यहां तक कि अभिभावक पीढ़ी के बीच भी पढ़ने-लिखने वाला लड़का समझा जाता था, लेकिन व्यवस्थित ढंग से पढ़ाई पूरी करने के मामले में एकदम बेकार था. 1970 से 1978 तक बीए के विद्यार्थी के रूप में अपना परिचय देता रहा, कभी युनिवर्सिटी के अंदर तो कभी बाहर. इसके अलावा घर की गरीबी एक समस्या थी, चाय-सिगरेट-रिक्शे का किराया...और कभी-कभी घर चलाने में मदद के लिये भी पैसे जुटाने पड़ते थे. 1970 से 74 के बीच बनारस और लखनऊ में 6 बार जेल भी जा चुका था और मोटे तौर पर मुझे पार्टी का निष्ठावान कार्यकर्ता माना जाता था, जिस पर ज़्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता था.
मेरा भाई प्रदीप एक तेज़-तर्रार युवा कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के रूप में उभर रहा था, जिसमें पार्टी नेता के सभी क्लासिकीय गुण मौजूद थे. सैद्धांतिक समझ, सांगठनिक पकड़, ईमानदार, संजीदा, हिम्मती और बोलने में भी तेज़. सबसे पहले उसे मुहल्ले में पार्टी कमेटी का सचिव बनाया गया, और उसने पार्टी संगठन को काफ़ी चुस्त दुरुस्त कर दिया. इसके बाद उसे बीएचयु में पार्टी का काम करने के लिये कहा गया. छात्र नेता तो वह नहीं बना, लेकिन थोड़े ही समय बाद वह कैंपस में पार्टी संगठन के लिये ज़िम्मेदार बन गया. उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी अध्यापकों, कर्मचारियों और छात्रों – इन तीनों धड़ों में पार्टी संगठन की नींव डालना. इसमें वह काफ़ी सफल रहा, लेकिन यह इमरजेंसी से पहले व उसके दौरान के साल थे, आरएसएस के विरोध में कुछ भी करना ठीक था, कुलपति डा. श्रीमाली के साथ पार्टी की अस्वस्थ निकटता बनी. मज़े की बात यह है कि इस स्थिति से कांग्रेसी सबसे ज़्यादा नाराज़ थे, क्योंकि श्रीमाली ने समझ लिया था कि कुछ व्यक्तिवादी कांग्रेसी नेताओं के बदले एक व्यवस्थित कम्युनिस्ट संगठन उनके लिये ज़्यादा उपयोगी हो सकता है. दूसरी ओर कम्युनिस्टों को ख़ुशफ़हमी थी कि वे पार्टी के फ़ायदे में श्रीमाली का उपयोग कर रहे हैं और उनका एक बौद्धिक जनाधार बन रहा है. इमरजेंसी के दौरान ही संजय गांधी के एक थपेड़े से सारा जनाधार तितरबितर हो चुका था. प्रदीप उसके बाद एक साल के लिये मास्को चला गया, लौटने के बाद कुछ ही दिनों में अजय भवन में पार्टी स्कूल में शिक्षक के रूप में उसे बुला लिया गया.
बहरहाल, बीएचयू की छात्र राजनीति में राजनीतिक संदर्भ सामने थे और उनके पीछे जातिवाद के समीकरण की मुख्य भूमिका थी. एआईएसएफ़ भी इससे जुड़ा हुआ था. ठाकुर आम तौर पर आरएसएस के साथ थे. चंचल जब अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहे थे तो उन्हें बिरादरी के एक बड़े हिस्से का समर्थन मिला था और वह परिषद के उम्मीदवार के खिलाफ़ फ़ैसलाकून था. लेकिन चंचल ने कभी ठाकुरवाद की राजनीति नहीं की. भूमिहार समाजवादियों के साथ थे, लेकिन मार्कंडेय सिंह के बाद वे किसी एक उम्मीदवार पर सहमत नहीं हो पाए, और वरिष्ठ समाजवादी नेता राजनारायण के दबदबे के बावजूद वे दूसरी पांत में ही रह गए. भुमिहार नेताओं में प्रमुख थे अनिरुद्ध, महेंद्रनाथ और सारंगधर राय. लेकिन इनकी वजह से सिर्फ़ समाजवादियों के वोट कटते थे और परिषद के उम्मीदवार की जीत होती थी.
छात्र आंदोलन की मिज़ाज के साथ आरएसएस की परंपरा वाले परिषद के कार्यकर्ता जुड़ नहीं पाते थे और इसलिये जेपी आंदोलन का पूरा फ़ायदा युवा जनता को मिला. चंचल अध्यक्ष चुने गए थे, फिर जेपी आंदोलन के शिखर पर अध्यक्ष पद पर मोहन प्रकाश और उपाध्यक्ष पद पर अंजना प्रकाश भारी बहुमत के साथ जीत हासिल कर चुके थे. पुराने छात्र नेताओं में आनंद कुमार जेएनयु जा चुके थे और प्रकाश करात को शिकस्त देकर उन्होंने सनसनी पैदा कर दी थी. आनंद अगर इमरजेंसी के दौरान भारत रहे होते, जेल गए होते तो शायद वे एक महत्वपूर्ण समाजवादी नेता बने होते. बहरहाल, बनारस में शतरुद्र प्रकाश युनिवर्सिटी से सटे कैंट चुनाव क्षेत्र में अपना राजनीतिक स्पेस तैयार कर रहे थे, मेरे ख्याल से बाद में वे दो बार यहां से विधायक बने. मोहन का भावी राजनीतिक स्पेस राजस्थान में था. चंचल का ऐसा कोई स्पेस नहीं था, लेकिन आपात काल में जेल यात्रा और जार्ज से संपर्कों के कारण सन 77 के बाद वे जनता पार्टी के समाजवादी धड़े में अच्छे-खासे दादा बन गये. जेपी आंदोलन में सक्रिय रहे लोगों में नचिकेता से मेरी व्यक्तिगत मित्रता थी, लेकिन नचिकेता देसाई में राजनीतिक नेता बनने की महत्वाकांक्षा नहीं थी. वह जो कुछ बनना चाहता था, कमोबेश वैसी ही ज़िंदगी उसकी बनी.
मोहन प्रकाश और खासकर चंचल व्यक्तिगत रिश्तों में काफ़ी दोस्ताना बने रहे, हालांकि कम्युनिस्टों और समाजवादियों के राजनीतिक रिश्ते काफ़ी कड़वे हो चुके थे. चंचल की एक खासियत यह भी थी कि देहाती पृष्ठभूमि से आने के बावजूद वह फ़ाइन आर्ट्स् के छात्र थे, जहां छात्र-छात्राएं सबसे हाइ-फ़ाइ हुआ करते थे. मजुमदार के बाद पहली बार समाजवादियों को एक छात्र नेता मिला था, जो बलियाटिक के साथ-साथ मकालू ग्रुप को आकर्षित कर रहा था. यह कोई दिखावा नहीं था, मेरी राय में चंचल के व्यक्तित्व में ये दोनों पहलू मौजूद थे. हम घनिष्ठ तो नहीं थे, लेकिन कभी-कभी बातचीत होती थी और सौजन्य का अभाव कभी नहीं दिखा.
राजनीतिक स्पेस की समस्या सबसे विकट रूप से मजुमदार के सामने आई. 1974 में वह शहर दक्षिणी से विधानसभा का चुनाव लड़े, छात्रों ने उनके समर्थन में पूरे क्षेत्र में टेंपो तैयार किया, लेकिन समाजवादी संगठन बनाने में काफ़ी कमज़ोर हुआ करते थे. 17 हज़ार वोट पाकर जनसंघ के चरणदास सेठ विजयी रहे, उसके पीछे कम्युनिस्ट गिरजेश राय को 13 हज़ार, कम्युनिस्ट पार्टी छोड़कर बीकेडी के उम्मीदवार बुधराम सिंह यादव को 12 हज़ार और मजुमदार को 11 हज़ार वोट मिले. यह एक अच्छा आधार हो सकता था, लेकिन मजुमदार फिर कभी इस लोकप्रियता को छू नहीं पाए. उनके चेले देखते ही देखते आगे बढ़ते गए, और वह खुद कभी कांग्रेस तो कभी जनता दल का दरवाज़ा खटखटाते रहे. लेकिन आरएसएस से दूरी उन्होंने हमेशा बनाये रखी.
कम्युनिस्ट पार्टी का कार्यकर्ता बने रहने के अलावा मेरी कभी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं थी, न उसकी कोई गुंजाइश थी. एक उभरते युवा कवि के तौर पर थोड़ी बहुत मान्यता मिली थी और ब्रेष्त की कविताओं के अनुवाद और कम्युनिस्ट कार्यकर्ता की हैसियत से मैं भारत जीडीआर मैत्री संगठन के हलकों के करीब आया, पूर्वी जर्मनी से आए मेहमानों से भी संपर्क हुआ. उन्हें अपनी विदेश प्रसारण संस्था रेडियो बर्लिन इंटरनेशनल के हिंदी विभाग के लिए एक युवा पत्रकार-उद्घोषक की ज़रूरत थी. जुलाई, 1979 में जब मेरे सामने प्रस्ताव आया तो स्वीकार न करने की कोई वजह नहीं थी. 26 नवंबर को मैं बर्लिन पहुंच चुका था. अब ज़िंदगी का एक नया दौर शुरू होने वाला था.

मेरी तीर्थयात्रा

Just the worst time of the year
For a journey,
And such a long journey…

दिल्ली से मास्को, फिर वहां से पूर्वी बर्लिन – जैसी कि एक कम्युनिस्ट की यात्रा होनी चाहिए. मुल्क छोड़ने से पहले राजनीतिक अभिभावकों ने चेताया था : मास्को-बर्लिन पहुंचकर हमारे बच्चे बिगड़ने लगते हैं, जिस काम से गए हैं उसे भूल जाते हैं. शराब में डूब जाते हैं, सिर्फ़ लड़कियों के चक्कर में रहते हैं. हमारी नाक मत कटवाना, कायदे से अपना काम करना, कभी-कभी पार्टी-वार्टी में थोड़ी पी लेना, लेकिन घर में खरीदकर मत लाना, फिर उस पर कंट्रोल रहेगा. और हां, शादी मत कर बैठना. मैं तो कमोबेश अपनी नानी के आदेश के किसी संस्करण को मानने वाला था. उन्होंने कहा था – ठंडा मुल्क है. शाम को गरम दूध में एक चम्मच ब्रांडी डालकर पी लेना.
सीपीआई उन दिनों समाजवादी देशों के लिये टूरिस्ट एजेंसी और नेताओं के बच्चों के लिए वजीफ़ा समिति की तरह थी. लेकिन यहां भी मेरा मामला कुछ अलग था. मैं पार्टी के काम से या पार्टी के कोटे में पढ़ने के लिये नहीं, तकनीकी हिसाब से निजी तौर पर नौकरी के लिए जा रहा था. जिन्हें इस बात का पता था, उनमें से कुछ बेहद ख़ुश थे, कुछ बेहद जल रहे थे. और नसीहत हर किसी से मिल रही थी. दिल्ली में मैं एक रिश्तेदार के घर ठहरा था, लेकिन रोज़ अजय भवन जाता था. बनारस छोड़ते वक्त घर छोड़ने का अहसास नहीं हुआ था, शायद वक्त की कमी की वजह से – जर्मनी जा रहा हूं, यह ख़बर फैल जाने के बाद हमउम्रों के बीच, ख़ासकर उसके आधे हिस्से में मेरा भाव काफ़ी बढ़ चुका था और मैं जमकर उसका फ़ायदा उठा रहा था. दिल्ली में दस दिन बिताने पड़े, कोई काम-धाम नहीं था, और पहली बार लगा कि मैं मुल्क छोड़कर जा रहा हूं, कब लौटूंगा पता नहीं. एक बंगाली लेखक ने कहा है कि घर छोड़कर विदेश जाने से पहले एक अजीब सी मनस्थिति हो जाती है, पड़ोस में किसी बिल्ली के मरने पर भी बंदा रोने लगता है. कनॉट प्लेस के बीच में घास के मैदान में बेंच पर बैठे-बैठे मैं भी एकदिन रो पड़ा था. अपने बनजारेपन का सारा घमंड काफ़ूर हो चुका था.
अजय भवन में आया था, जर्मनी जा रहा हूं जानकर एक परिचित सीनियर कामरेड तहकीकात के लिए आए. वे सोवियत संघ की यात्रा कर चुके थे, शायद ओम्स्क, इर्कुटस्क या व्लादिवोस्टोक की. काफ़ी व्योरे के साथ उन्होंने यात्रा के लिये मेरी तैयारी का जायज़ा लिया. ध्रुवमामा (डा. डी जे मुखर्जी) का ओवरकोट, नाना के सूट को ऑल्टर करके एक नया सूट ( वे तीस के दशक में इंगलैंड की यात्रा कर चुके थे, और नानी ने कहा कि इस सूट में बिल्कुल साहब लगते थे ), अपने परिवार और बनारस के स्टैंडर्ड के मुताबिक बाटा के नये जूते, ऊन के मोज़े, मां के बुने हुए ऊन के दस्ताने, मफ़लर – सीनियर कॉमरेड काफ़ी संतुष्ट दिखे. फिर उन्होंने पूछा कि गरम टोपी ली है या नहीं. टोपी की बात दिमाग में थी ही नहीं. उन्होंने अपना माथा पटक लिया. “कॉमरेड, तुम्हें पता ही नहीं है कि वहां का जाड़ा क्या होता है. चालीस-पचास-साठ...“, फिर कुछ ठहरकर उन्होंने कहा “माइनस में“. एक दिन बाद उड़ान थी. सोचा, देखा जाएगा.
26 नवंबर, 1979. पहली बार न सिर्फ़ मुल्क से बाहर जा रहा था, बल्कि पहली बार उड़ भी रहा था. 26 साल के नौजवान के लिए यह कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, लेकिन मैं अपने-आपको उस समय बिल्कुल बच्चे जैसा महसूस कर रहा था. प्लेन अभी ज़मीन पर ही थी, लेकिन मैं पूरा नर्वस हो चुका था. उड़ान से पहले ही पता चल चुका था कि एआईएसएफ़ के अध्यक्ष रह चुके टाइगर दयाल की रूसी पत्नी और बेटी भी उसी फ़्लाइट से मास्को जा रही हैं. अपनी सीट पर बैठने के बाद देखा कि उन्हें भी मेरे साथ सीट मिली हुई है. रूसी भाभी अच्छी हिंदी बोलती थी, बेटी अंग्रेज़ी – थोड़ी ढाड़स मिली.
लेकिन मेरे दिमाग में चालीस-पचास-साठ...क्या पता एक सौ साठ – माइनस की दहशत छाई हुई थी. कामरेड ने बड़ी बारीकी से समझाया था कि कैसे दो मिनट के अंदर न्युमोनिया हो सकती है और एक घंटे के अंदर मौत. आने से पहले एक बहुत बड़े नेता ने पूछा था कि मैं फ़ॉरेन एक्सचेंज ले रहा हूं कि नहीं. मैंने इसके बारे में सोचा भी नहीं था, सो पूछा : ज़रूरी है क्या ? उन्होंने तुरंत कहा, नहीं-नहीं, बर्लिन एअरपोर्ट पर ही रेडियो के लोग तुम्हें रिसीव कर लेंगे. फिर उन्होंने कहा, ये दो सौ रूपए रख लो, यहां एअरपोर्ट पर डॉलर में बदल लेना. बर्लिन पहुंचकर अपनी चाची को दे देना. मेरी चाची, यानी उनकी पत्नी, जो उन दिनों पूर्वी बर्लिन में थीं. जेब में पहली बार डॉलर थे, उनकी गर्मी का अहसास अच्छा लग रहा था, भले ही वे अपने न हों.
हर टरमॉएल पर लग रहा था कि प्लेन अब क्रैश होने वाला है. कुछ एक सहयात्रियों के चेहरे पर ऊब देखकर बेहद ढाड़स मिल रही थी. दिमाग के अंदर गूंज रहा था : टोपी-टोपी-टोपी...जेब में सरसरा रहे थे 25 डॉलर, भले ही वे अपने न हों. एअर इंडिया की फ़्लाइट थी, मातृभूमि की सुंदर विमान परिचारिकाएं थीं, मन को समझाने की कोशिश कर रहा था – जी भर कर देख लो बेटा, इसके बाद सिर्फ़ गोरी लड़कियां होंगी. सोचने की कोशिश करने लगा, गोरी लड़कियां कैसी होती हैं. पता है कि स्वच्छंद होती हैं, लेकिन मातृभूमि की बदनामी नहीं होने देनी है. अगला टरमॉएल आया, तो आंखें बंदकर सोचने लगा कि गोरी लड़कियां अपने मौलिक रूप में कैसी दिखती होंगी. हिप्पियों की राजधानी बनारस में मुझे इसका अनुभव हो चुका था, लेकिन सिर्फ़ एकबार...और अपने उस सौभाग्य से मैं इतना उत्तेजित था कि ठीक से कुछ देखा ही नहीं था. आंखे खुली, तो बगल में रूसी भाभी बैठी हुई थी. शर्माकर मैं दूसरी ओर देखने लगा. जैसे-तैसे दो ढाई घंटे बीत गए, और मैं मास्को पहुंचा.
मास्को का शेरेमेत्येवो एअरपोर्ट. 1980 के ओलंपिक खेलों की तैयारी में उसे आधुनिक बनाया गया था. यूरोपीय मापदंड से औसत, लेकिन बनारसी तो उसका तामझाम देखकर दंग रह गया. इसके सामने तो पालम बिल्कुल फेल था. उस ज़माने में हम भारत को बड़े फ़ख्र के साथ तीसरी दुनिया का हिस्सा कहते थे, शिवपालगंज के      लोगों की तरह देश के स्वाधीन पिछड़ेपन पर हमें अभिमान था. यहां लेनिन की धरती से पहली मुलाकात में अपनी ज़िंदगी का मिशन मेरे लिए बिल्कुल साफ़ हो गया : आज हम पालम हैं, कल शेरेमेत्येवो बनेंगे, जहां कोई भूखा नहीं होगा. वह दिन ज़रूर आएगा.
लेकिन मुझे भूख सता रही थी. एअर इंडिया फ़्लाइट का खाना अच्छा था, लेकिन मुझ बनारसी के लिए बिल्कुल नाकाफ़ी. चारों ओर बड़े-बड़े रेस्त्रां दिख रहे थे, मेरी जेब में 25 डॉलर भी थे, लेकिन वे मेरे अपने नहीं थे. दो घंटे बाद बर्लिन की फ़्लाइट थी. दुकानों में घूम-घूमकर देखने लगा. आधी दुकान लकड़ी के पुतलों से भरी थी, पुतलों के चेहरों में पूरी बराबरी, जैसी कि कम्युनिजम में होनी चाहिए. वैसे मुझे कुछ अजीब सा लगा कि इन दुकानों में सोनी, फिलिप्स या नेसले जैसी पश्चिमी कंपनियों के माल भरे पड़े हैं. उनके नाम भी एक ही थे – बेर्योज़का. मुझे कहां से पता होता कि हार्ड करेंसी की दुकानों की समाजवादी अर्थनीति कितनी बीहड़ होती है...
यूरेका !!! टोपियां !!! सफ़ेद-लाल-नीली-पीली-काली...टोपियां. हुम्...पीली शायद नहीं. पर क्या फ़र्क पड़ता था. मैं उस उपभोक्तावाद की उन्मादना के साथ टोपियों को देखने लगा, जो भारत में दस-पंद्रह साल बाद आने वाला था. कीमतें ? आठ, दस, बारह, पंद्रह, बीस या उससे ऊपर. इस बीच मेरी बुद्धि थोड़ी काम करने लगी थी, और मैं समझ गया था कि पालम की तरह यहां भी ड्यूटी फ़्री शॉप है, और ये कीमतें बेशक डॉलर में होंगी. दो समस्याएं थीं : ये महिलाओं की टोपियां थीं, और मेरी जेब के 25 डॉलर मेरे अपने नहीं थे. खैर, पैसे अगर जेब में हों, तो अपने ही होते हैं. और जहां महिलाएं हों, क्या पुरुष नहीं होंगे ? टोपी की शकल में ही सही. अंदर गया, तो एक शेल्फ़ पर काली फ़र की टोपियां थीं, जैसा कि वार एंड पीस फ़िल्म में कज़्ज़ाक अफ़सरों को पहनते देखा था. सेल्समैन से दिखाने को कहा, मगर सारी टोपियां मेरे सिर से बड़ी थीं, खैर उन्हीं में से छांटकर सबसे छोटी टोपी ली. कीमत 7, तो दस डॉलर का नोट दिया. सेल्समैन ने इशारे से कहा काफ़ी नहीं है, और दो. पांच का नोट बढ़ाया, उसने रसीद काटी तो पता चला कि वह सात रूबल की टोपी थी, यानी 12 डॉलर 75 सेंट. आनेवाले दिनों में आंख पर उतर आने वाली यह कज़्ज़ाक फ़र टोपी बर्लिन में मेरा ट्रेड मार्क बनने वाली थी, जिसकी कहानी बाद में सुनाउंगा. लेकिन फ़िलहाल मैं ख़ुश था कि पांच मिनट में न्यूमोनिया और एक घंटे में मौत का खतरा टल गया.
मास्को से बर्लिन तक की उड़ान वैसी ही रही, सिर्फ़ थोड़ी सी चिंता थी कि एअरपोर्ट पर कोई होगा या नहीं. सुटकेस आसानी से मिल गया, उसे ढोते हुए बाहर निकला. इमिग्रेशन से बाहर निकलते ही शुद्ध हिंदी में सुनाई दिया : नमस्कार, मैं श्र्लेंडर हूं. बर्लिन में आपका स्वागत. ये अगले 27 साल तक मेरे बॉस होने वाले थे. मेरे हाथ से उन्होंने सुटकेस लिया, जो बहुत बड़ा तो नहीं था, लेकिन अप्रत्याशित रूप से भारी था. इसके अंदर क्या है ? चौंककर उन्होंने पूछा. रवींद्रनाथ की संपूर्ण रचनावली, मैंने कहा. वह अपनी गाड़ी से मुझे मेरे लिये निर्धारित फ़्लैट में ले आए. कहा कि मैं अगले दिन सुबह 9 बजे तैयार रहूं, वे मुझे दफ़्तर ले जाएंगे. बेहद थका हुआ था, मैं कुछ ही मिनटों में सो गया. अगले दिन से मेरी नई ज़िंदगी शुरू होने वाली थी.

बाल बाल बच गए

यूरोप की बारिश वैसे ही मनहूस होती है, फिर कोलोन का तो कोई जवाब ही नहीं.

नवंबर की वो एक शाम थी. हल्की बारिश में भीगते-भीगते अपने पुश्तैनी पब में पहुंचा. अदर पहुंचते ही मूड खराब हो गया - एक भी परिचित चेहरा नहीं. बार के सामने एक ऊंचे स्टूल पर बैठा, हमारे मालिक, यानी पब के साकी हेलमुट ने बिना कुछ पूछे बियर का गिलास रख दिया. चुस्की लेते हुए इधर-उधर देखा, बगल के स्टूल पर एक युवती बियर पी रही थी. उनके हाथ में सिगरेट थी. उम्र कोई चालीस की रही होगी. मैंने भी सिगरेट का पैकेट निकाला - ऐशट्रे उनके सामने था, इससे पहले कि मैं कुछ कहता, मोहतरमा ने ऐशट्रे को दोनों के बीचोबीच रख दिया.

बियर की चुस्की ले रहा था, बोर हो रहा था. बाहर देखा था तो धीमी-धीमी बारिश जारी थी. निर्मल वर्मा याद आए, लेकिन दिल नहीं बहला. महिला की ओर देखा और लगभग स्वगतोक्ति के अंदाज़ में मैंने कहा - कल धूप निकलने वाली है.

उन्होंने मेरी ओर देखा. चंद लमहों की ख़ामोशी. फिर उन्होंने कहा - "मैं लेसबियन हूं."

पता नहीं मुझे क्या सूझा. मैंने जवाब दिया - "मैं भी."

"क्या ?" - महिला ने चौंककर पूछा - "आपका मतलब ?"

अब मुझे ख्याल हुआ कि मैं क्या कह गया हूं. अब अपनी बात समझानी थी. लेकिन क्या खाक समझाता, जबकि मुझे खुद समझ में नहीं आ रहा था.

फिर एक बियर की चुस्की, और मैंने कहना शुरू किया :

"देखिये, यह तो हर कोई देख सकता है कि मैं मर्द हूं. लेकिन बात यह है कि एक मर्द के जिस्म में मेरा एक औरत का वजूद है."

"ओह, यानी कि आप समलैंगिक हैं. " - उन्होंने कहा.

"दरअसल, इतना आसान नहीं है" - अब मैं पब के मूड में आ गया था. "हालांकि मेरा वजूद एक औरत का वजूद है, लेकिन मुझे मर्द पसंद नहीं हैं. एक औरत के तौर पर मैं औरतों को पसंद करता हूं."

"हुम्", उन्होंने कहा. पूछा - "और यह चलता कैसे है ?"

"हां, थोड़ा मुश्किल है. कोई औरत जब मेरे साथ होती है, वह सोचती है कि मैं मर्द हूं और वैसे ही मुझसे पेश आती है. जबकि मैं चाहता हूं कि वो मुझे औरत समझते हुए मेरे साथ पेश आवे. कभी-कभी मुझे लगता है कि वो मेरे साथ धोखा कर रही है."

एक लंबी खामोशी. फिर उन्होंने पूछा : "और आपको पता कैसे चला कि आप औरत हैं ?"

मुझे लगा कि मैं अपने ही बनाए फंदे से अब बाहर आ रहा हूं. मैंने कहा - "आप तो जानती ही हैं कि हम औरतों का सोचने का तरीका कुछ अलग होता है."

हम दोनों ने अपने गिलास खाली किए. बेयरे ने मेरे सामने नया गिलास रखा. उन्होंने हाथ हिलाकर मना किया, पैसे चुकाकर वापस जाने लगी. अपना जैकेट पहनकर मेरी ओर देखते हुए मुस्कराकर उन्होंने कहा - "कहानी दमदार थी."

रहो, पर क़ायदे से

वही मेरा पुराना पब - वही स्टूल - मूंछों वाला वही हमारा साकी हेलमुट - वैसी ही एक शाम, जब कोई परिचित चेहरा न हो. बगल के स्टूल पर एक लंबा-चौड़ा जर्मन, देखने से पता नहीं चलता कि प्लंबर है या कसाई. एक नया चेहरा. संयोग से दोनों का गिलास ख़त्म हुआ, जैसा कि रिवाज है, हेलमुट ने चुपचाप दो नया गिलास रखकर पुराने गिलास हटा लिए.

अपना गिलास उठाकर उसकी ओर देखते हुए मैंने कहा - प्रोस्त, यानी चीयर्स का जर्मन संस्करण.

उसने मेरी ओर देखा. बिना कुछ कहे एक लंबी चुस्की ली. मूंछे पोंछने के बाद उसने कहा - "हुम्...दरअसल विदेशियों से मुझे कोई एतराज़ नहीं है..."

ये अलफ़ाज़ मेरे लिए अपरिचित नहीं थे. यह नव्बे का दशक था. शरणार्थियों के मारे जर्मनी की हालत जितनी ख़राब थी, उससे भी ज़्यादा उस ख़राबी को भुनाने के लिए दक्षिणपंथी नेताओं की कोशिशें जारी थीं. मैंने छूटते ही उससे पूछा : "हां, लेकिन ?"

"हां", उसने अपनी बात जारी रखी, "मुझे यह कतई पसंद नहीं कि सारी दुनिया के लोग यहां आते रहे, और हमारे क़ायदा कानून की धज्जियां उड़ाते रहे."

"बिल्कुल सही कहते हैं आप", मैंने कहा, "ऐसा नहीं होना चाहिए."

"अब देखो ना", अचानक "तुम" पर उतरते हुए उसने कहा, "आंकड़े कहते हैं कि विदेशियों के बीच अपराधियों की संख्या जर्मनों से तीन गुनी है. ऐसा नहीं चल सकता. हमारे मुल्क में आओगे, सारी सहुलियत लोगे और अपने सारे कुकर्म जारी रखोगे...ऐसा नहीं चल सकता."

मैं सोचने लगा. अभी दो दिन पहले देश के दक्षिणपंथी गृहमंत्री मानफ़्रेड कांथर ने बहुत क़ायदे से तैयार किये गये आंकड़ों के सहारे कहा था कि विदेशियों की वजह से देश में अपराध बढ़ रहे हैं. तीन गुने का आंकड़ा भी उन्हीं का दिया हुआ था. कितनी जल्दी मंत्री की बातें आम जनता के तर्क बनकर सारे मुल्क में फैलने लगती हैं.

"आप" पर ज़ोर देते हुए मैंने कहा, "आप ठीक कहते हैं, मंत्रीजी ने भी यही बात कही है. काफ़ी ख़बर रखते हैं आप. वैसे...आप करते क्या हैं ?"

"मैं ट्रक चलाता हूं." - संक्षेप में उसने जवाब दिया.

"अच्छा पेशा है", मैंने कहा, "देखिये, मैं तो पत्रकार हूं. और आंकड़े कहते हैं कि ट्रक चालकों के बीच अपराधियों की संख्या पत्रकारों की तुलना में ढाई गुनी है." मैंने तुक्का मारा. फिर मुस्कराते हुए मैंने कहा, "वैसे इससे क्या फ़र्क पड़ता है ? आप भले आदमी हैं, मैं भी एक भला आदमी हूं. दिनभर हमने मेहनत की है. अब शाम को साथ बियर पी रहे हैं. यही तो सबसे बड़ी बात है. है ना ?"

एक सांस में सारा बियर नीचे उतारकर बार के ऊपर उसने पांच का नोट रखा. बिना कुछ कहे बाहर निकल गया. हेलमुट दूर खड़ा था. बियर का नया गिलास लेकर आया. मेरे सामने रखते हुए उसने कहा, "ये हाउस की ओर से है". फिर उसने जो कुछ कहा, उसका हिंदी अनुवाद कुछ इस प्रकार होगा - क्या दिया गुरु !